मंगलवार, 3 मार्च 2020

हिंदीभाषी राज्यों में हिंदी में कार्य के लिए बैठकें...

      माननीय महोदय, आजादी के 72 वर्ष बाद भी हिंदीभाषी राज्यों में शासकीय कार्य हिंदी में किये जाने हेतु निर्देशित किये जाने वाली ऐसी बैठकें क्या मजाक-सी नहीं लगतीं ? क्या ऐसे कार्यक्रम शासकीय धन एवं समय का सदुपयोग कहे जायेंगे?

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रविवार, 15 जून 2008

पहला कोरियाई-हिन्दी शब्दकोश जारी

नई दिल्ली (भाषा), मंगलवार, 17 जून 2008( 17:53 IST )
पर्यटन मंत्री अंबिका सोनी ने हाल ही में सोल में एक कोरियाई-हिन्दी शब्दकोश जारी किया।शब्दकोश पर 1994 में ही काम शुरू हुआ था और इसमें 700 पृष्ठ हैं। इस परियोजना में हांकुक यूनिवर्सिटी ऑफ फौरेन स्टडीज के हिंदी विभाग के छात्रों और शिक्षकों ने अहम भूमिका निभाई जबकि किम वू जो इसके समन्वयक थे। शब्दकोश में करीब 50 हजार शब्द हैं।इस परियोजना के लिए भारत तथा कोरिया की सरकारों ने वित्तपोषण किया। शब्दकोश जारी किए जाने के लिए आयोजित समारोह में पारंपरिक भारतीय सांस्कृतिक कार्यक्रम पेश किए गए।

हिंदी में वैज्ञानिक-तकनीकी शिक्षण और चुनौतियाँ : गिरीश पंकज व मंजुला उपाध्याय

हिंदी अपनी वैश्विक पहचान बनाने की दिशा में तेज़ी के साथ बढ़ रही है। लेकिन तकनीकी और वैज्ञानिक शिक्षण की दिशा में अनेक स्तुत्य प्रयासों के बावजूद अभी भी बहुत कुछ करना शेष है। चीन, जापान, जर्मन,फ्रांस और रूस जैसे अनेक देशों में राष्ट्रभाषा में कर सका है। हमारे यहाँ अँगरेज़ी का रोना रोया जाता है। गुलामी एक बड़ा कारण रही है। आज भी हमारा तंत्र अँगरेज़ी के दुष्चक्र से बाहर नहीं निकल सका है। इसीलिए यह कह दिया जाता है, कि यहाँ हिंदी में तकनीकी या वैज्ञानिक शिक्षण नहीं हो सकता । जबकि ऐसा बिल्कुल नही हैं। हमारे भाषाविदों ने इस चुनौती को स्वीकार करके वर्षों पहले इस दिशा मे महत्वपूर्ण कार्य शूरू कर दिया है। डॉ. रघुवीर और उनके जैसे बहुत से लोंगो ने शुरुआत की, तो अरविंदकुमार जैसे एकनिष्ठ महानुभावों ने उस कार्य को और आगे बढ़ाया । लेकिन दिक्कत यही है कि तकनीकी शिक्षण के नाम पर जो अनुवाद हो रहा है, जो शब्द गढ़े जा रहे हैं, वे इनते क्लिष्ट हैं, कि उनको ग्राह्रा कर पाना संभव नहीं हो पा रहा। चुनौती यही है, कि हमारे भाषाविद् अँगरेज़ी के बरक्स ऐसे नए-नए शब्द सर्जित करें, जो बेहद आसान किस्म के हों। राजभाषा के रूप मे ही अनेक शब्दों की सर्जना हुई है, वही लोगों के समझ में नहीं आते। वे उच्चारण की दृष्टि से भी बेहद कठिन हैं। फिर भी उन्हें प्रचलन में लाने की कोशिश हो रही है, जबकि शिक्षण के लिए सरल शब्दों के लिए और अधिक कठिन साधना ज़रूरी है। एक तरफ़ पूरा मीडिया हिंग्लिश अथावा हिंगरेज़ी नामक नई भाषा विकसित करने पर तुला हुआ है, दूसरी तरफ़ उत्तरआधुनिकता का राग अलापने वाले लोग हैं, जो ऐसी ही वर्णसंकर भाषा पसंद कर रहे हैं। यह अगर एक नई सर्वमान्य संस्कृति होती, तो भी उसे स्वीकृति मिल सकती थी, मगर यह तो विशुद्ध रूप से अपसंस्कृति है। इसे कैसे आत्मसात किया जा सकता है ? ऐसे विद्रूप समय में हिंदी की वैज्ञानिक शिक्षा के मार्ग में चुनौतियाँ हैं । फिर हिंदी हिंदी है। संभावनाओं का ऐसा द्वार जो सर्जनात्मकता के लिए सदैव खुला रहता है।

स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात हिंदी को निरंतर समृद्ध बनाने की दिशा में भाषाविदों अपनी जवानी होम कर दी। आज भी कुछ लोग अपना बुढापा होम कर रहे हैं। इन सबके प्रयासों से ही हिंदी की तकनीकी शिक्षण का मार्ग प्रशस्त हुआ है। हिंदी में अनुवाद के रूप में या अनुसंधान के रूप में अनेक नए शब्दों की सर्जना हुई है, हो रही है, लेकिन अधिकांश मामले में उसकी बुनावट जटिल है, इसे स्वीकारना होगा । शब्द गढ़ने के नाम पर कई बार असफल प्रयास हुए हैं। लोक प्रचलित हो चुके अँगरेज़ी के शब्दों के कठिन अनुवाद अब ग्राह्रा नहीं हो सकते । टाई के लिए कंठलंगोट और कंठभूषण अथवा सिगरेट के लिए श्वेत धूम्रपान दंडिका जैसे शब्द मजाक बन कर ही रह गए। कुछ शब्दों को तो जस का तस आत्मसात करना होगा, मगर जो अन्य शब्दावलियाँ हैं, उनकी सरलता पर काम करने की ज़रूरत है। टेक्निकल को तकनीकी बनाकर हमने उसे लोकप्रिय कर दिया। रिपोर्ट को रपट किया । अल्टीमेटम को अंतिमेत्थम कहा। अलेक्जेंडर सिकंदर बना। अरिश्टोटल अरस्तू हो गया, और रिक्रूट रंगरूट में बदल गया। कई बार भाषाविदों का काम समाज भी करता चलता है। जैसे मोबाइल को चलितवार्ता भी कहा जाता है। भाषाविद् प्रयास कर रहे होंगे कि इस शब्द का सही अनुवाद सामने आए । कोई सरल शब्द संभव न हो सके तो मोबाइल को ही गोद लेने में कोई दिक्कत नहीं होनी चाहिए। पराई संतानों को स्वीकार करके हम उनके नए नामकरण की कोशिश करते हैं लेकिन हर बार सफलता मिल जाए, यह ज़रूरी नहीं।

हिंदी की तकनीकी शब्दावली को समृद्ध करने के लिए यह अति आवश्यक है कि हम सरल अनुवाद की संस्कृति को प्रोत्साहित करते रहें। अनुवाद ही वह सर्वोत्तम प्रविधि है, जो हिंदी के तकनीकी शिक्षण का आधार बनेगी। अनुवाद एक पुल है, जो दो दिलों को, दो भाषिक संस्कृतियों को जोड़ देता है। हिंदी की तकनीकी या वैज्ञानिक-चिकित्सकीय शिक्षण में अनुवाद का अप्रतिम योगदान रहेगा। अनुवाद के सहारे ही विदेशी या स्वदेशी भाषाओं के अनेक शब्द हिंदी में आते हैं और नया संस्कार ग्रहण करते हैं। कोई भाषा तभी समृद्ध होती है, जब वह अन्य भाषाओं के शब्द भी ग्रहण करती चले। हिंदी में शब्द आते हैं और नया संस्कार ग्रहण करते हैं। हिंदी भाषा में आकर अँगरेज़ी के कुछ शब्द समरस होते हैं, तो यह खुशी की बात है। लेकिन इस चक्कर में हमारे मूल शब्द ही हाशिये पर चले जाएँ, तकनीकी शब्दावली सरल होगी, तभी स्वीकार्य होगी। वरना सारी शब्दावलियाँ पुस्तकों तक ही सीमित होकर रह जाएँगी । या फिर उनका हश्र भी संस्कृत भाषा की तरह हो जाएगा। व्यवहार में अँगरेज़ी ही चलती रहेगी। अनुवाद पत्रिका सदभावना दर्पण का प्रकाशन करते हुए मैंने महसूस किया कि पत्रिका में जो कविता या कहानी सरल भाषा में अनूदित हुई, उस पर तो पाठकीय प्रतिक्रियाओं की भरमार रही, मगर जिन रचनाओं के अनुवाद क्लिष्ट थे, उन पर कोई प्रतिक्रिया ही नहीं आई। इक्का-दुक्का अगर आई भी, तो यही कहा गया, कि सरल अनुवाद पर ध्यान दें।

पिछले कुछ वर्षों में नए-नए शब्द-संसार से गुज़रते हुए बहुतों ने यह महसूस किया कि हिंदी के तकनीकी शिक्षण में फिलहाल सबसे बड़ी दिक्कत यही है, कि जो नए-नए शब्द गढ़े जा रहे हैं, वे तत्सम-प्रकृति के हैं और क्लिष्ट भी हैं। उनमे सरलीकरण का खाँटी अभाव है। जैसे समय के साथ-साथ शब्द भी आसान होते चलते हैं, तद्भवी रूप लेते रहते हैं, उसी तरह तकनीकी शब्दों को भी थोड़ा आसान बनाना होगा। जिव्हा से जीभ, वृच्श्रिक से बिच्छू, अक्षि से आँख, स्तन से थन, कोकिल से कोयल और इंतकाल का रूपांतरण अंतकाल सचमुच सरल और व्यावहारिक लगता है। लेकिन संस्कृत या अंगरेजी़ के कुछ शब्दों का हिंदीकरण करने के चक्कर में उसे और ज़्यादा क्लिष्ट बना देना अन्याय ही है। जैसे अपमार्जिका को अपमार्जक जंतु, उरका को सरीसृप जीव कहना मूल शब्द से एक तरह का खिलवाड़ ही लगता है। संस्कृत के अतिचित्र को कैरिकेयर और प्रक्षेपित्र को प्रोजक्टर के विकल्प रूप में रखना तो सुखद लगता है, मगर मीसोन को मध्योण, पोजीट्रोन को धनोण, न्यूट्रोन को नपुंसोण और ऐक्स क्रोमोसोम का अक्षसोप या अक्षोम नामकरण शिक्षण को और दुरूह कर देगा। बेहतर यही होगा कि हम वैज्ञानिक एवं तकनीकी शिक्षण के लिए सरल एवं ग्राह्म हो सकने वाले शब्दों की ही सर्जना करें। जैसे गलूकोज को मधुरोस, प्रोटीन को प्रोथीन, चार्जिक को चार्जन करना ज़्यादा व्यावहवारिक एवं ग्राह्म प्रतीत होता है।

मूल्य शब्दों से परे जाकर अनुवाद करना और और मूल शब्द से मिलते-जुलते शब्दों की सर्जना में अंतर है। शब्दकोश की समृद्धि के लिए दुरूह प्रयोग ठीक हो सकते हैं, लेकिन शिक्षण की दृष्टि से देखें तो ये कतई उपयोगी सिद्ध नहीं हो सकेंगे । जैसे प्रक्षालित्र, उत्थापित्र, प्रोत्थापित्र, प्रदोलित्र, संरोधित्र, श्यानित्र जैसे शब्द लाख कोशिशों के बावजूद छात्र ग्राह्म नहीं कर पाएँगे। इससे बेहतर तो यही होगा कि हम अँगरेज़ी के शब्दों को ही जस का तस रख दें, या फिर रुपांतरण इतना आसान बनाएँ, कि अटपटा न लगे। फ्रिजर का अनुवाद श्यानित्र, एयरकूलर का शीतित्र अथवा वातानुशीतित्र तथा इनवाइटर को इग्रित्र कहना अटपटा प्रयोग लगता है। ऐसा करके हम छात्रों को शिक्षण ही नहीं, हिंदी से भी दूर ले जाएँगे। एयरकूल का वातानुकूल तो ठीक है, लेकिन यह भी स्वीकारना होगा, कि हर युग में और हर कहीं केवल सरलता ही स्वीकार्य होती है। वाल्मीकि द्वारा संस्कृत में रची गयी रामायण संस्कृत के विद्वान तो समझ पाए, लेकिन वह आम लोगों से दूर ही रही, लेकिन जैसे ही तुलसीदास जी ने रामचरित मानस की अवधी जैसी खड़ी बोली में, सर्जना की, तो वह देखते ही वैश्वीक हो गई।

विज्ञान एवं तकनीकी शिक्षण के लिए गढ़े जाने वाले शब्दों के साथ भाषाविद् इस बात का भी ध्यान रखें, कि उसे लोक-स्वीकृति मिले। नए तकनीकी शब्द अगर किताबी बन कर रह गए, तो उनकी उपादेयता क्या रहेगी ? वे हमारे जीवन के भी अनिवार्य हिस्से क्यों न बनें ? नित नए शब्दों के सर्जक दिन-रात एक कर रहे हैं। लैंस को चंद्रक, कार्डियल को हृदयल, पैथसिन के लिए जठरिन, एयर कन्वेटर के लिए परिवत्र या संवाहित्र, और इंक्केरी के लिए परिपृष्टा जैसे शब्दों की सर्जना वंदनीय है लेकिन यह ग्राह्रा नहीं हो सकते। अगर हम ऐसे शब्दों के सहारे शिक्षण करने की तैयारी कर रहे हैं, तो छात्र दूर होते जाएँगे। सरलीकरण का ध्यान रखते हुए शब्द-संधान हो। ऐसे शब्द तैयार हों, जो पानी की तरह बहते हों। नए सृजित शब्दों के अधिकांश उदाहरण मैंने अरविंदकुमार जी के समांतर कोश से ही लिए हैं। अरविंदकुमार जी ने अपनी धर्मपत्नी के साथ मिल कर निसंदेह युगांतकारी काम किया है। हिंदी साहित्य उनका ऋणी है, लेकिन व्यावहारिक दृष्टि से उनके अनेक शब्द शायद अप्रचलित ही रह जाएँगे । शिक्षण-प्रशिक्षण की दृष्टि से उपयोगी सिद्ध नहीं हो पाएँगे। जिस तरीके के शब्द सामने आ रहे हैं, उसे देख कर ही यह माना जाने लगा है कि हमारे यहाँ भी हिंदी में तकनीकी शिक्षण सर्वाधिक जटिल का है।

भूमंडलीकरण के इस दौर में एक भाषा में अन्य भाषाओं के शब्द भी सहज रूप से समरस होने लगे हैं। यह वैश्वीकरण की दिशा में रचनात्मक पहल है। आक्सफोर्ड शब्दकोश में पक्का, अचार, गंगा, पंडा, हिंदी, पंडित जैसे अनेक शब्द शामिल हो चुके हैं। तब हम अँगरेज़ी के बेहद प्रचिलत शब्दों का शिक्षण में इस्तेमाल क्यों नहीं कर सकते ? शब्दों की नई संरचनाएँ स्वागतेय हैं, मगर वे पर्यायवाची के रूप में ही रहें। जैसे ब्लैकहोल को कालत्र कहना या विटामिन के लिए जीवामिन शब्द बनाना ठीक है, लेकिन समीचीन यही होगा, कि हम ब्लैकहोल और विटामिन का ही व्यवहार करते रहे, क्योंकि ये शब्द अब बेहद प्रचलित हो गए हैं। एयरकूल एयरकूल ही ठीक है। इसे वातानुशीतित्र करने से गरमी बढ़ सकती है। मानसिक शीतलता दृष्टि से कठिन शब्दावलियों से परहेज भी ज़रूरी है। तभी तकनीकी शिक्षण सफल हो पाएगा।
अनेक उदाहरणों को देखने के बाद मैं यह मानता हूँ कि हिंदी में तकनीकी- वैज्ञानिक शिक्षण के लिए नए सिरे सोचने की ज़रूरत है। क्लिष्टता ही विद्वता का पर्याय नहीं है। सरलता ही सर्वकालिक होती है। इस दृष्टि से हिंदी में नई शैक्षणिक प्रविधि विकसित करने की ज़रूरत है। अंतरजाल (इंटरनेट) के माध्यम से हिंदी वैश्विक होती जा रही है। अब उसे शिक्षण-प्रशिक्षण की सार्थक भाषा बनाने के लिए नई परियोजनाएँ बनानी होंगी। बन भी रही हैं। शब्दावली आयोग तो 1961 से ही इसी काम में प्राणपण से सक्रिय है। आयोग ने अब तक लगभग पाँच लाख पारिभाषित शब्दों का जाल-सा बिछा दिया है। मानविकी, विज्ञान, प्रशासन आदि से जुड़े हजारों नए शब्द तैयार हुए। यह अभूतपूर्व काम है। भाषाविदों को भी अलग-अलग मोर्चों पर काम करना पड़ेगा। शर्त यही है, कि अनुसंधान एवं सर्जना के लिए सरल भाषा में ही वैकल्पिक शब्दों की संरचना हो। वह आम बोलचाल की भाषा भी न हो, लेकिन कम से कम ऐसी तो हो, कि विद्यार्थी उसे आसानी से समझ और उच्चारित कर सकें।

अपने समय के महान भाषा विज्ञानी डॉ. रघुवीर, डॉ. भोलानाथ तिवारी, हरदेव बाहरी, फादर कॉमिल बुल्के आदि ने हज़ारों शब्द सर्जित किए थे। डॉ. रघुवीर ने डेढ़ लाख पारिभाषिक शब्दों का भारी-भरकम कोश तैयार किया था। उन्होंने अँगरेज़ी के अनेक शब्दों के हिंदी अनुवाद किए, नए शब्द भी गढ़े, मगर तत्सम रूपों के कारण उन्हें स्वीकृति नहीं मिल सकी, लेकिन उन्होंने युगांतकारी काम किया था, वे शुद्धतावादी थे अब केवल संस्कृतनिष्ठ शब्दों से काम नहीं चलेगा। हमें भारतीय भाषाओं के सहारे शब्दों की रचना करनी होगी। डॉ. रघुवीर के काम को जी-तोड़ श्रम करने वाले अरविंदकुमार जी आगे बढ़ा रहे हैं। लेकिन अनेक शब्द व्यावहारिकता के निकष पर खरे नहीं उतर सके हैं। अभी और मेहनत करनी होगी और विज्ञान-तकनीकी शिक्षण के लिए दुरूह शब्दों के साथ-साथ मूल शब्द भी प्रचलन में रखना होगा। धीरे-धीरे ही सही, क्लिष्ट शब्द भी हमारे शैक्षणिक जीवन के हिस्से बन जाएँगे। ज़रूरत इस बात की है, कि नए शब्द पर्यायवाची रूप में निरंतर प्रचलन में रहें। इस बात का ध्यान भी रखना होगा, कि अपनी भाषा की श्रेष्ठता का दंभ न पाला जाए। अन्य भारतीय भाषाओं से भी शब्द लेने की कोशिशें हों। संस्कृत को देववाणी कह दिया जाता है। महाराष्ट्र के महान संत नामदेव इसीलिए तो पूछते हैं, कि संस्कृत अगर देववाणी है तो मराठी क्या चोरवाणी है ? दरअसल अस्मिता के नाम पर हमारे हिंदी विद्वान कुछ ज़्यादा ही भावुक और शुद्धतावादी हो गए। यही भावुकता शिक्षण-प्रशिक्षण में बाधा बन रही है।

हिंदी का बृहत्तर समाज अब वैश्विक होता जा रहा है, इसलिए वह शिक्षण के मामले में भी उदार बने। हिंग्लिश या हिंगरेज़ी या अँगरेज़ी का तेज़ी से विस्तार हो रहा है। यह इस बात का प्रतीक है, कि वर्जनाएँ टूट रही हैं। शुद्धता अब कोई अहम् मुद्दा नहीं। अब तो जो हमारी सेवा में तैनात है, उसकी भाषिक प्रविधि को ही निखारने की ज़रूरत है। अँगरेज़ी हमारी जीवन शैली का हिस्सा बनती जा रही है। ऐसे समय में अगर कुछ यौगिक शब्द बनें या अँगरेज़ी शब्दों की सरल अनुसर्जना हो, तो यह स्वागतेय है। जेल-खाना, रेल-गाड़ी, रेलवे, प्लेटफार्म, बस स्टैंड, शेयरधारक, आदि को हम हिंदी को हम हिंदी मानकर चलें। रेडियो, टीवी, भाषा के मामले में हम सर्वग्रह्म प्रवृत्ति के संत बन कर यौगिक एवं सरल शब्दों को प्रोत्साहित करें। ग.मा. मुक्तिबोध ने कहा था, कि राष्ट्रभाषा वही है जिसकी पहुँच ज़्यादा आदमियों तक रहे। किंतु हम तो हिंदी की प्रेषणीयता को ही ख़त्म करने जा रहे हैं। बात बिल्कुल सही है। दुरूह शब्दों को परोसने की कोशिश प्रकारांतर से हिंदी की प्रेषणीयता को ख़त्म कर देगी।

भाषिक संरचना की दिशा में निरंतर अनुसंधान हो रहे हैं इसलिए विज्ञान एवं तकनीकी शिक्षण की शब्दावलियों के बारे में आम राय यही है कि उनके लोकव्यापीकरण पर ध्यान दिया जाए। जैसे प्रजनन सरल लगता है, मगर उस प्रवर्णन कितना कठिन हो जाएगा। एल्फा के लिए अकाराणु, कन्वैक्टर के लिए पंखित्र जैसे शब्द उचित-से प्रतीत नहीं होते। मेरे ख्याल से हारमोन को हारमोन ही रहने दिया जाए। कन्वेक्टर अगर कन्वक्तर भी हो जाए तो चल सकता है। जैसे रिपोर्ट का रपट हो गया। कार्डियल को हृदयल अनुवाद हृदयग्राही है। ज्ञापन, परमाणु, अणु, रेडियोएक्टिवता, अधीक्षक, निगम, मुदा-स्फीति, प्रायोजित अनुवांशिकी, डाक्टर, इंजीनियर, जैसे अनेक शब्द हैं, जो धीरे-धीरे जीवन में घुल-मिल रहे हैं। मगर लाइटर के लिए प्रज्वलित्र कठिन है। उजालक जैसे विकल्प पर विचार किया जाए। कम्प्यूटर के माउस को माउस ही रहने दें। उसे चुहा न बनाएँ।

बहरहाल, हिंदी में तकनीकी और वैज्ञानिक शिक्षण शिक्षण की दिशा में जो भगीरथ प्रयास हो रहे हैं, वे विफल नहीं हो सकते। वह दिन दूर नहीं जब हमारी राष्ट्रभाषा हिंदी में संपूर्ण तकनीकी शिक्षण शुरू हो जाएगा। बस, हमें अँगरेज़ी के साथ-साथ भारतीय भाषाओं को भी खंगालना होगा। वहाँ भी हमें अँगरेज़ी के पर्यायवाची शब्द मिल सकते हैं। उर्दू या कहें कि हिंदुस्तानी भाषा के उनके शब्द लिए जा सकते हैं । दक्षिण की भाषाओं के भी शब्द तलाशे जा सकते हैं। प्रख्यात व्याकरणाचार्य किशोरीदास वाजपेयी कहते थे, कि हिंदी को तो अंतर-प्रांतीय व्यावहार का माध्यम स्वीकार करना है। अँगरेज़ी भाषा के लदे रहने से प्रांतीय भाषाएँ नहीं दबीं, तब हिंदी से क्या दबेंगी ? हिंदी के सहयोग से तो वे अत्यधिक विकसित होंगी। महावीरप्रसाद द्विवेदी जी कहते हैं, कि हिंदी भाषा जीवित भाषा है। जो लोग उसे किसी परिमित सीमा के बीतर ही आवद्व करना चाहते हैं, वे मानो उसका उपचय-उसकी कलेवर-वृद्धि-नहीं चाहते।...संसार में शायद ही ऐसी एक भी भाषा न होगी जिस पर, संपर्क के कारण, अन्य भाषाओं का प्रभाव न पड़ा हो और अन्य भाषाओं के शब्द उसमें सम्मिलित न हो गए हों । अंगरेज़ी भाषा संसार की समृद्ध भाषाओं में है। उसी को देखिए - उसमें लैटिन, ग्रीक, फ्रेंच, जर्मन आदि अनेक भाषाओं के शब्दों, भावों और मुहावरों का सम्मिश्रण है। उसमें संस्कृत भाषा तक के कुछ थोड़े ही परिवर्तित रूप में पाए जाते हैं। उदाहरणार्थ पाथ के रूप में हमारा पथ और ग्रास के रूप में घास प्रायः ज्यों का त्यों विद्यमान है। ये सब उदाहरण इस बात के प्रमाण हैं कि हमारे पुरखे भी प्रगातिशील सोच वाले थे, और वे भाषाई आदान-प्रदान का प्रबल पक्षधर थे।

हिंदी की शब्दावली को समृद्ध करने के लिए दूसरी भाषाओं की नदी में उतरना ही होगा। वैसे हमारी लोक भाषाएँ भी बेहद प्राणवान हैं। छत्तीसगढ़ी भाषा में ही एक-एक शब्द के अनेक पर्यायवाची शब्द मिल जाते हैं। भारतीय भाषाएँ समृद्ध है। इनमें अँगरेज़ी के समतुल्य अनेक शब्द मिल जाएँगे। ऐसा करके हम भाषाई सद्भावना की दिशा में भी एक सशक्त कदम बढ़ाएँगे और तकनीकी शिक्षण के स्वप्न को भी पूरा करेंगे।
संदर्भः
(1) अनुवाद पत्रिका के कोश विशेषांक (अंक-94-95, जनवरी-जून 1998)
(2) अनुवाद शतक विशेषांक जुलाई-दिसंबर- 1999
(3) समकालीन सृजन, अंक 18, 1998।
(4) भाषा, जनवरी-, 2006
-गिरीश पंकज
जी-31, नया पंचशील नगर,
रायपुर- 492001 (छ।ग)
(http://www.srijangatha.com/ से साभार)

भाषा और संस्कृति : बालशौरि रेड्डी

''अब विदेशों में हमारे प्रवासी भारतीय अपनी भाषा संस्कृति, आदर्श एवं मूल्यों के प्रबल समर्थक होते हुए भी विदेशी भाषा को अपनी आजीविका तथा वैज्ञानिक उन्नति का स्त्रोत एवं साधन मानकर उसकी उपासना में लगे हुए हैं। ऐसी स्थिति में उन्हें अब आत्म विश्लेषण करना होगा कि हम मूलत: भारतीय हैं और भारत गणतंत्र की राजभाषा, संपर्क भाषा एवं राष्ट्रभाषा हिन्दी की उपेक्षा करना उचित नहीं हैं। यह जागृति व चेतना पुन: हिन्दी के उत्थान में सहायक सिध्द होगी।''

भाषा मानव मन की भावनाओं को अभिव्यक्त करने का साधन है। साथ ही एक-दूसरे को जोड़ने का माध्यम है। परस्पर सुख-दुखों आशा-आकांक्षाओं, आचार-विचार, वेष-भूषा, ज्ञान-विज्ञान, कला समस्त प्रकार की भाव संपक्ष आध्यात्मिक विरासत, संस्कृति तथा समस्त चिंतन भाषा में निबद्ध होता है।

वैदिक संस्कृत एवं ग्रीक भाषा एवं साहित्य विश्व के अत्यंत प्राचीनतम एवं समृद्ध भाषाएँ मानी जाती हैं। जिस भाषा में ज्ञान-विज्ञान, शिल्प एवं समस्त कलाओं की अभिव्यक्ति की गहनक्षमता होती है, वह भाषा संपन्न मानी जाती है। गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने अपने एक गीत में स्पष्ट बताया है- हम देश में आर्य भी आये। अनार्य भी आए, द्रविड़, चीन, शक-हूण, पठान मुगल सभी यहाँ आये, लेकिन कोई भी अलग नहीं रहा। सब इस महासागर (संस्कृति) में विलीन होकर एक हो गये।

निश्चय ही भारत एक महासागर है और भारतीय संस्कृति भी महासागर है। इसमें विश्व की तमाम संस्कृतियाँ आकर समाहित हो गई। आज जिसे लोग हिन्दू संस्कृति मानते है वह वस्तुत: भारतीय संस्कृति है जो सिंधुघाटी की सभ्यता, प्राग्वैतिहासिक एवं वैदिक संस्कृति का विकसित रूप है। इसने अनेक धर्मों, सभ्यताओं एवं संस्कृतियों को आत्मस सात कर लिया है। यही कारण है कि भारतीय संस्कृति सामासिक कहलाती है।

भारतीय संस्कृति की अन्य विशेषताएँ है। यह प्रगतिशील है, सांप्रदायिकता से परे तथा सहिष्णुता की भावना से ओतप्रोत है। समस्त भारत को धार्मिक, सामासिक सांस्कृतिक एवं ऐतिहासिक स्तर पर एक सूत्र में गूँथने की भावना एक भारतीय भावना-एकात्म भावना में बदरीनाथ केदारनाथ से लेकर कन्याकुमारी को, काशी से रामेश्वरम द्वारका से पुरी को जोड़ रखा है। जगद्गुरु श्री शंकराचार्य ने भारत के चारों दशाओं में चार पीठों की स्थापना की। तुलसी के अयोध्यावासी राम रामेश्वरम में शिव की उपासना करते हैं।

धार्मिक स्तर पर भी समन्वय की भावना भारतीय संस्कृति की महान उपलब्धि है। भारतीय वाडमय भी सांस्कृतिपरक है। डॉ. पी. राघवन ने अपनी ''भारतीय साहित्य रत्नमाला'' पुस्तक मे बताया है- ''भारत की प्रादेशिक भाषाओं में उत्कृष्ट साहित्य के प्रथम प्रयास संस्कृत के अनुवाद मात्र ही थे। ये सभी भाषाएँ शब्दराभि, दार्शनिक एवं धार्मिक पृष्ठभूमि, विषयवस्तु और साहित्यिक शैलियों के लिए संस्कृत पर ही पूरी तरह आश्वित थी।

यह कथन सर्वथा सत्य है हमारे देश की प्राकृत, पालि अपभ्रंश, ब्रज अवधी राजस्थानी भाषाएँ ही यहीं अपितु बांगला, मराठी, गुज़राती, तेलगु, कन्ड़, मलयालम आदि इतर भाषाएँ भी अपनी साहित्यिक संपदा के लिए किसी न किसी रूप में संस्कृत पर आधारित रही हैं अर्थात् समस्त भारतीय भाषाएँ संस्कृत वाडमय से अनुप्राणित हैं। महर्षि वाल्मिकी कृत आदि काव्य रामायण से लेकर व्यास प्रणीत महाभारत, भागवत इत्यादि काव्य-ग्रंथों के साथ भास, बाणभट्ट, हर्ष, कालिदास आदि के द्वारा विरचित साहित्य भारतीय भाषाओं में रूपांतरित है और उसके विभिन्न उपाख्यानों के आधार अपने पाडमय भण्डार को संपन्न कर चुकी है और यह क्रम भी जारी है।

अलावा इसके संस्कृत में भारती दर्शन, वेदांत, उपनिषद, तर्क, व्याकरण, न्याय रसायन, इतिवास, चिकित्सा, अर्थशास्त्र, नीतिशास्त्र, ज्योतिष, गणित, धनुर्वेद, मीमांसा, पुराण इत्यादि ज्ञान-विज्ञान संबंधी समस्त साहित्य उपलब्ध है जिसका रूपांतर समस्त भारतीय भाषाओं में हुआ है और ये सारी क्षेत्रीय भाषाएँ उपरोक्त वाड:मय के लिए केवल संस्कृत पर ही प्रारंभ में आधारित रहीं जिसमें हमारी संपूर्ण सांस्कृतिक परंपरा अक्षुण्ण है। अर्थात् संस्कृत भारतीय संस्कृति की स्त्रोत भाषा रही है और संस्कृत साहित्य उसका मूलाधार रहा है।

दरअसल किसी देश की सभ्यता एवं संस्कृति के विकास में उस देश या राष्ट्र की भाषा अहम् भूमिका रखती है। वैदिक युग से लेकर मुगल एवं अँग्ररेज़ों के आगमन तक भारत का इतिहास भाव्य रहा है। इस महान देश की सभ्यता की तूती सारे विश्व में बोल रही थी। भारत सभी क्षेत्रों में अ ग्रिम पंक्ति में था। रोम, ग्रीक आदि देशों के साथ भारत का व्यापार आदि वाणिज्य के क्षेत्रों में गहरा संपर्क था। बौद्ध एवं जैन युगों के समय में भारत की शिल्प स्थापत्य, चित्रकला एवं काष्ठकला चरमसीमा तक पहुँच चुकी थी। विदेशों से विद्यार्थी यहाँ के तक्षशिला, नालन्दा तथा विक्रम शिला के विश्व विद्यालयों में शिक्षा पाने हेतु आया करते थे। यहाँ की राज दरबारों में विदेशी राजदूत नियुक्त थे। मेगस्थनीस, टालमी, विदेशी यात्रियों ने हमारे देश का भ्रमण करके जो यात्रा वृतान्त लिखे हैं, उससे हमारे देश के प्राचीन वैभव एवं संस्कृति का भली भाँति पता चलता है। ईस्वी पूर्व पाँचवी शती से लेकर ईस्वीं दसवीं शताब्दी तक भारत के क्षेत्रों में स्पृहणीय विकास को प्राप्त था। इस प्रकार हमारे देश के चतुमुखी विकास में भाषा एवं साहित्य अगुणी भूमिका निभा रहे थे। दो हजार वर्ष पूर्व भारत में जहाँ न्यायी एवं पराक्रमी सम्राट विक्रमादित्य का वैभवपूर्ण शासन था, चन्द्रगुप्त जैसे प्रतापी और चाणक्य जैसे कुशल राजनीतिज्ञ विश्व के इतिहास में दुर्लभ हैं। महामात्य चाणक्य ने राज्य व्यवस्था चलाने के लिए अर्थशास्त्र, नाम से एक अद्भुत राजनीति शास्त्र का प्रणयन किया था, जिससे भारत की शानदार राज्य व्यवस्था का पता चलता है। परन्तु यवनों के आक्रमण के पश्चात् क्रमश: हमारे शास्त्र वाड:मय एवं कलाओं के विकास का मार्ग अवरूद्ध हुआ। अँग्ररेज़ों के आगमन के साथ हम अपने धर्म-कर्म को भी भूल बैठे और पाश्चात्य रंग में रंगने लगे। लार्ड मेकाले ने भारत में शासन तंत्र एवं शिक्षा का माध्यम अँगरेज़ी बनाने के सिफ़ारिश करके भारतवासियों को इंग्लैण्ड का बौद्धिक गुलाम बनाया। आज हम उसी भाषा के चश्मे से दुनिया को देखते हैं और अपनी अस्मिता को खो बैठे हैं। हमारे देश की सुद्र भाषाओं पर हमारा विश्वास नहीं रहा। पाश्चात्य सभ्यता के प्रवाह में बहते हुए भाषा के स्तर पर पराश्रित बन गये हैं। कुछ लोगों का विश्वास है कि विश्व का समस्त ज्ञान-विज्ञान एवं प्रतिभा कौशल केवल अँगरेज़ी भाषा में सुरक्षित है। यह उनकी गलत धारणा है। पुरातत्व फलां संगीत चित्रकारी इत्यादि विषयों में फे्रंच भाषा में जैसा समृद्ध साहित्य उपलब्ध है, वैसा साहित्य अँगरेज़ी में नहीं है फिर हम लोग अँगरेज़ी के बैशाखी पर चलते में गौरव तथा वर्ग का अनुभव करते हैं जब कि यथार्थ में रूसी, जापानी, जर्मन, फ्रेंच एवं फारसी भाषाएँ भी कम समृद्ध नहीं है। इन भाषओं में प्रचुर मात्रा में ज्ञान-विज्ञान का साहित्य रचा गया है और महत्वपूर्ण अनुसंधान हुआ है। उनकी संस्कृति परंपरा इन भाषाएं में अक्षुण्ण है और आज वैश्विक स्तर पर ये देश व्यापर वाणिज्य कला संस्कृति तथा विज्ञान के क्षेत्रों में अग्रिम पंक्ति में है। ये देश किसी भी हानि से अँगरेज़ी के मुंह ताज नहीं है। फिर भारत क्यों अँगरेज़ी का मुखापेक्षी है। यह हमारी मानसिक दासता का द्योतक है।

प्रजातंत्रीय राष्ट्र के चार अनिवार्य तत्वों में- संविधान राष्ट्रध्वज तथा राष्ट्रगीत के साथ राष्ट्रभाषा भी नितांत आवश्यक है। साथ ही किसी भी राष्ट्र पर किसी विदेशी भाषा को थोपना आधुनिकता के मूलभूत सिद्धांतों के विरूद्ध है। वास्तव में यदि किसी राष्ट्र पर जब कोई विदेशी भाषा हावी होने लगती है तभी उस राष्ट्र की संस्कृति का हास ने लगता है। किसी जाति के पूर्वजों द्वारा विचार एवं कर्म के क्षेत्र में अर्जित श्रेष्ठ संपत्ति उसकी संस्कृति होती है। वह संस्कृति उस जाति की भाषा के माध्यम से जीवित रहती है। सदियों से कोई भी जाति अपने जो मूल्य एवं आदर्श अपने अनुभव श्रमनिष्ठा चिन्तन मेधा समझ, विवेक द्वारा स्थापित करती है। उस जाति की संस्कृति मानी जाती है। भाषा संस्कृति की वाहिका होती है। अर्थात् संस्कृति की आधारशिला उस जाति की भाषा होती है। इसलिए संस्कृति भाषा पर टिकी होती है। इस प्रकार भाषा और संस्कृति का अविभाज्य संबन्ध है।

आज हमारे देश और विदेशों में भी हमारी संस्कृति खतरे में फँसी हुई है। विरासत को भूल बैठे हैं और अंधाधुंध पाश्चात्य भाषाओं साहित्य, कला, रहन-सहन आचार-विचार, संप्रदायों का अनुकरण करते जा रहे हैं, पाश्चात्य सभ्यता के आदर्श एवं मूल्य भौतिक सुख-सुविधाओं पर टिके हुए हैं और बौद्धिक विकास को प्रश्चय देते है। जबकि हमारे आदर्श एवं मूल्य निशुद्ध अध्यात्मपरक हैं। यह आदर्श तथा मूल्य भारतीय भाषाओं में सुरक्षित हैं। अब विदेशों में हमारे प्रवासी भारतीय अपनी भाषा संस्कृति, आदर्श एवं मूल्यों के प्रबल समर्थक होते हुए भी विदेशी भाषा को अपनी आजीविका तथा वैज्ञानिक उन्नति का स्त्रोत एवं साधन मानकर उसकी उपासना में लगे हुए हैं। ऐसी स्थिति में उन्हें अब आत्म विश्लेषण करना होगा कि हम मूलत: भारतीय हैं और भारत गणतंत्र की राजभाषा, संपर्क भाषा एवं राष्ट्रभाषा हिन्दी की उपेक्षा करना उचित नहीं हैं। यह जागृति व चेतना पुन: हिन्दी के उत्थान में सहायक सिध्द होगी।

आज वैश्विक स्तर पर हिन्दी को एक प्रकार से मान्यता प्राप्त हो चुकी हैं। दूतावासों के माध्यम से ही नहीं अनेक विश्वविद्यालयों में हिन्दी के पठन-पाठन तथा अनुसंधान की व्यवस्था हो चुकी है। हिन्दी भाषा भाषी ही नहीं, अन्य समस्त भारतवासी विदेशों में निवास करते हुए यह अनुभव करते हैं कि वे अपनी संस्कृति व अस्मिता खोते जा रहे हैं, यह अनुभव और आत्मविश्लेषण हिन्दी को अपनाने तथा जीवित बनाने रखते का शुभ संकेत है। यत्र-तत्र वे हिन्दी को द्वितीय भाषा के रूप में पाठशालाओं में पढ़ाने की व्यवस्था कराने के लिए आकुल-व्याकुल हैं।
मेरी समझ में विदेशों में हिन्दी को स्थापित करने तथा उसके उत्थान के उपायों हो सकते हैं :-
1. प्रत्येक परिवार में माता-पिता या अभिभावक अपनी मातृभाषा या हिन्दी में ही वार्तालाप करें और बच्चों के साथ घर में सदा-सर्वदा हिन्दी में ही बोले अर्थात हिन्दी का वातावरण बनाये रखें।
2. प्रवासी भारतीय विदेशों में जहाँ भी रहें, जिस स्थिति में भी रहें, भारतीय संस्कृति के आदर्शों तथा मूल्यों से पूर्ण साहित्य का पठन-पाठन करें व करायें।
3. विदेशों में बच्चों के लिए हिन्दी पाठशालाओं में हिन्दी पढ़ाने का प्रबंध करावें। चाहे द्वितीय या तृतीय भाषा के रूप में ही क्यों न दो पाठयक्रम में स्थान दिलावें।
4. भारतीय बहुल नगरों शहरों व कस्बों में हिन्दी ग्रंथालय तथा वाचनालय स्थापित करें, प्रमुख पत्रिकाएँ मंगवाकर सब को सुलभ करावें। हिन्दी में रचित उत्तम साहित्य तथा विज्ञान संबंधी पुस्तकें मंगवायें अथवा दूतावास के माध्यम से उपलब्ध करावें।
5. भारतीय पर्व व त्यौहार अवश्य निष्ठापूर्वक मनाकर उनके महत्व पर व्याख्यानों का आयोजन करें।
6. हिन्दी की विविध विधाओं पर प्रतियोगिताएँ चलाएँ तथा विजेताओं को पदक पुरस्कार प्रदान कर प्रोत्साहित करें।
7. समय-समय पर गोष्ठियों, परिसंवादों, समारोहों, सम्मेंलनों तथा सभाओं का आयोजन करके अपने ज्ञान की वृद्धि करें और हिन्दी भाषा के प्रतिममत्व आकर्षण तथा श्रद्धा-भाव पैदा करें।
8. विभिन्न भारतीय भाषाओं तथा साहित्यों के आदान प्रदान-अनुवाद इत्यादि का प्रबंध हो। ताकि विभिन्न भाषा भाषी भारतीयों के बीच सद्भाव, सौमनस्य एवं सौजन्य के अंकुर फूटे।
9. पिकनिक, सांस्कृतिक कार्य भी संगीत, नृत्य नाटक एवं चित्रकलाओं के प्रदर्शन भी हिन्दी के उत्थान में सहायक हो सकते हैं।
10. इन सब से बढ़ कर महत्वपूर्ण कार्य यह होना चाहिए कि दादी-नानी के माध्यम से ही नहीं, माता-पिता तथा भारतीय समाज के लोग भारतीय साहित्य, कला, वैभव, इतिहास आदि का बच्चों के बोध करावे तथा अपनी मातृभूमि प्रति श्रद्धा-भक्ति उनके हृद्यों में उदित हो सके।

तेलुगु के महा कवि आचार्य रायप्रोलु सुब्बाराव ने अपने एक राष्ट्रीय गीत में यह उद्बोधन किया है-
(''देश मेगिनाएवं कालिडिना, पोगडरा भी तल्ली भूमि भारतीनी।'' अर्थात् तुम किसी भी देश में जाओ, जहाँ भी कदम रखें, अपनी मातृसदृश भारत भूमि की प्रस्तुति करना न भूलो।)
अब रहा, भारत के भीतर हिन्दी के उत्थान का प्रश्न-हिन्दी तो संवैधानिक स्तर पर 26जनवरी 1956 से ही भारत की राजभाषा का स्थान व गौरव प्राप्त कर चुकी है। अँगरेज़ी सहभाषा के रूप में व्यवहत्त होनी चाहिए थी परंतु आज भी उसका वर्चस्व सर्वत्र स्थापित है। यह हमारी मानसिकता की गुलामी का प्रतीक है। गृह मंत्रालय द्वारा हिन्दी को क्रमश: शासन तंत्र में अर्थात प्रशासन में प्रवेश कराने के प्रयत्न दशकों से हो रहे हैं, जो संतोष जनक नहीं है वैसे 1965 में तत्कालीन प्रधान मंत्री स्वर्गीय श्री लालबहादुर शास्त्री की अध्यक्षता में संपन्न मुख्यमंत्रियों के सम्मेलन में सर्वसम्मति से सभी राज्यों में त्रिभाषा सूत्र अमल करने का निश्चय हुआ था- प्रथम भाषा- मातृभाषा या क्षेत्रीय भाषा, द्वितीय भाषा हिन्द या तृतीय भाषा के रूप में अँगरेज़ी पढ़ाई जाए। दक्षिण के आन्ध्रप्रदेश, कर्नाटक एवं केरल ने ईमानदारी के साथ इस सिद्धांतों पर अमल किया परंतु शेष राज्यों ने या तो आंशिक रूप में अनुपालक किया अथवा उपेक्षा की। इस क्रम से हिन्दी वास्तव में राजभाषा के पद पर सही मान में कभी स्थापित नहीं हो सकती। इसके दो ही उपाय है- एक तो यह है कि अँगरेज़ी के समान हिन्दी में उत्तीण स्नातकों को नौकवियों में प्राथमिकता दी जाए। यह प्रावधान शासन के स्तर पर विधयक द्वारा होना चाहिए। क्योंकि हिन्दी को आज भावना के स्तर पर नहीं, रोजी-रोटी के साथ जोड़ना होगा। तब झखमार कर तब लोग हिन्दी पढ़ेंगे-सारे देश का समर्थन हिन्दी को प्राप्त होगा और अँगरेज़ी अपने आप छूट जाएगी। दो -संसद में यह प्रस्ताव पारित करना चाहिए कि पाँच या छ: वर्ष की अवधि तक भारत में प्रशासन में अँगरेज़ी का प्रचलन होगा। तत्पश्चात केवल मात्र हिन्दी का प्रचलन होगा अन्यथा हमारी संकल्पना कभी आचरण में साध्य न होगी।

हमारे रासू के मनीषी विद्वान स्वर्गीय डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने सही कहा था कि भारतीय वाङमय एक है और यह विभिन्न भाषाओं में सृजित है। यह हमारी एकात्मता का द्योतक है साथ ही उन्होंने यह भी कहा था कि हमें भारतीय अध्यात्म को पूर्ण रूप में बनाये रखते हुए पश्चिम के वैज्ञानिक उन्मेष को भी अपनाना होगा। तभी हमारा भौतिक एवं अध्यात्मिक स्तर पर समग्र विकास संभव है। परंतु आज हम भारतीयों में कथनी-करनी में बहुत बड़ा अंतर आ गया है। परिणाम स्वरूप हम इस संक्रांति काल से गुज़र रहे हैं। इस ओर हिन्दी के महा कवि, कामायनी कार श्री जयशंकर प्रसाद ने संकित किया था-

ज्ञान दूर कुछ, क्रिया भिन्न है, इच्छा पूरी हो मन की; एक दूसरे से न मिल सके, यह विडम्बना है जीवन की। आइये, हम इस विडंबना पर विजय प्राप्त करें तथा महात्मा गाँधी के इस कथन को-
''एक राष्ट्रभाषा हो भारत की।
एक हृदय हो भारत जननी।
सार्थक बनाने का संकल्प करें और
उसे पूर्ण रूप में आचरण में लावें।''
-बालशौरि रेड्डी
पूर्व संपादक, चंदामामा
चैन्नई, तमिलनाडु
(कॉम/">http://www.srijangatha.कॉम/ से साभार)
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हिंदीभाषी राज्यों में हिंदी में कार्य के लिए बैठकें...

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