रविवार, 15 जून 2008

हिंदी में वैज्ञानिक-तकनीकी शिक्षण और चुनौतियाँ : गिरीश पंकज व मंजुला उपाध्याय

हिंदी अपनी वैश्विक पहचान बनाने की दिशा में तेज़ी के साथ बढ़ रही है। लेकिन तकनीकी और वैज्ञानिक शिक्षण की दिशा में अनेक स्तुत्य प्रयासों के बावजूद अभी भी बहुत कुछ करना शेष है। चीन, जापान, जर्मन,फ्रांस और रूस जैसे अनेक देशों में राष्ट्रभाषा में कर सका है। हमारे यहाँ अँगरेज़ी का रोना रोया जाता है। गुलामी एक बड़ा कारण रही है। आज भी हमारा तंत्र अँगरेज़ी के दुष्चक्र से बाहर नहीं निकल सका है। इसीलिए यह कह दिया जाता है, कि यहाँ हिंदी में तकनीकी या वैज्ञानिक शिक्षण नहीं हो सकता । जबकि ऐसा बिल्कुल नही हैं। हमारे भाषाविदों ने इस चुनौती को स्वीकार करके वर्षों पहले इस दिशा मे महत्वपूर्ण कार्य शूरू कर दिया है। डॉ. रघुवीर और उनके जैसे बहुत से लोंगो ने शुरुआत की, तो अरविंदकुमार जैसे एकनिष्ठ महानुभावों ने उस कार्य को और आगे बढ़ाया । लेकिन दिक्कत यही है कि तकनीकी शिक्षण के नाम पर जो अनुवाद हो रहा है, जो शब्द गढ़े जा रहे हैं, वे इनते क्लिष्ट हैं, कि उनको ग्राह्रा कर पाना संभव नहीं हो पा रहा। चुनौती यही है, कि हमारे भाषाविद् अँगरेज़ी के बरक्स ऐसे नए-नए शब्द सर्जित करें, जो बेहद आसान किस्म के हों। राजभाषा के रूप मे ही अनेक शब्दों की सर्जना हुई है, वही लोगों के समझ में नहीं आते। वे उच्चारण की दृष्टि से भी बेहद कठिन हैं। फिर भी उन्हें प्रचलन में लाने की कोशिश हो रही है, जबकि शिक्षण के लिए सरल शब्दों के लिए और अधिक कठिन साधना ज़रूरी है। एक तरफ़ पूरा मीडिया हिंग्लिश अथावा हिंगरेज़ी नामक नई भाषा विकसित करने पर तुला हुआ है, दूसरी तरफ़ उत्तरआधुनिकता का राग अलापने वाले लोग हैं, जो ऐसी ही वर्णसंकर भाषा पसंद कर रहे हैं। यह अगर एक नई सर्वमान्य संस्कृति होती, तो भी उसे स्वीकृति मिल सकती थी, मगर यह तो विशुद्ध रूप से अपसंस्कृति है। इसे कैसे आत्मसात किया जा सकता है ? ऐसे विद्रूप समय में हिंदी की वैज्ञानिक शिक्षा के मार्ग में चुनौतियाँ हैं । फिर हिंदी हिंदी है। संभावनाओं का ऐसा द्वार जो सर्जनात्मकता के लिए सदैव खुला रहता है।

स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात हिंदी को निरंतर समृद्ध बनाने की दिशा में भाषाविदों अपनी जवानी होम कर दी। आज भी कुछ लोग अपना बुढापा होम कर रहे हैं। इन सबके प्रयासों से ही हिंदी की तकनीकी शिक्षण का मार्ग प्रशस्त हुआ है। हिंदी में अनुवाद के रूप में या अनुसंधान के रूप में अनेक नए शब्दों की सर्जना हुई है, हो रही है, लेकिन अधिकांश मामले में उसकी बुनावट जटिल है, इसे स्वीकारना होगा । शब्द गढ़ने के नाम पर कई बार असफल प्रयास हुए हैं। लोक प्रचलित हो चुके अँगरेज़ी के शब्दों के कठिन अनुवाद अब ग्राह्रा नहीं हो सकते । टाई के लिए कंठलंगोट और कंठभूषण अथवा सिगरेट के लिए श्वेत धूम्रपान दंडिका जैसे शब्द मजाक बन कर ही रह गए। कुछ शब्दों को तो जस का तस आत्मसात करना होगा, मगर जो अन्य शब्दावलियाँ हैं, उनकी सरलता पर काम करने की ज़रूरत है। टेक्निकल को तकनीकी बनाकर हमने उसे लोकप्रिय कर दिया। रिपोर्ट को रपट किया । अल्टीमेटम को अंतिमेत्थम कहा। अलेक्जेंडर सिकंदर बना। अरिश्टोटल अरस्तू हो गया, और रिक्रूट रंगरूट में बदल गया। कई बार भाषाविदों का काम समाज भी करता चलता है। जैसे मोबाइल को चलितवार्ता भी कहा जाता है। भाषाविद् प्रयास कर रहे होंगे कि इस शब्द का सही अनुवाद सामने आए । कोई सरल शब्द संभव न हो सके तो मोबाइल को ही गोद लेने में कोई दिक्कत नहीं होनी चाहिए। पराई संतानों को स्वीकार करके हम उनके नए नामकरण की कोशिश करते हैं लेकिन हर बार सफलता मिल जाए, यह ज़रूरी नहीं।

हिंदी की तकनीकी शब्दावली को समृद्ध करने के लिए यह अति आवश्यक है कि हम सरल अनुवाद की संस्कृति को प्रोत्साहित करते रहें। अनुवाद ही वह सर्वोत्तम प्रविधि है, जो हिंदी के तकनीकी शिक्षण का आधार बनेगी। अनुवाद एक पुल है, जो दो दिलों को, दो भाषिक संस्कृतियों को जोड़ देता है। हिंदी की तकनीकी या वैज्ञानिक-चिकित्सकीय शिक्षण में अनुवाद का अप्रतिम योगदान रहेगा। अनुवाद के सहारे ही विदेशी या स्वदेशी भाषाओं के अनेक शब्द हिंदी में आते हैं और नया संस्कार ग्रहण करते हैं। कोई भाषा तभी समृद्ध होती है, जब वह अन्य भाषाओं के शब्द भी ग्रहण करती चले। हिंदी में शब्द आते हैं और नया संस्कार ग्रहण करते हैं। हिंदी भाषा में आकर अँगरेज़ी के कुछ शब्द समरस होते हैं, तो यह खुशी की बात है। लेकिन इस चक्कर में हमारे मूल शब्द ही हाशिये पर चले जाएँ, तकनीकी शब्दावली सरल होगी, तभी स्वीकार्य होगी। वरना सारी शब्दावलियाँ पुस्तकों तक ही सीमित होकर रह जाएँगी । या फिर उनका हश्र भी संस्कृत भाषा की तरह हो जाएगा। व्यवहार में अँगरेज़ी ही चलती रहेगी। अनुवाद पत्रिका सदभावना दर्पण का प्रकाशन करते हुए मैंने महसूस किया कि पत्रिका में जो कविता या कहानी सरल भाषा में अनूदित हुई, उस पर तो पाठकीय प्रतिक्रियाओं की भरमार रही, मगर जिन रचनाओं के अनुवाद क्लिष्ट थे, उन पर कोई प्रतिक्रिया ही नहीं आई। इक्का-दुक्का अगर आई भी, तो यही कहा गया, कि सरल अनुवाद पर ध्यान दें।

पिछले कुछ वर्षों में नए-नए शब्द-संसार से गुज़रते हुए बहुतों ने यह महसूस किया कि हिंदी के तकनीकी शिक्षण में फिलहाल सबसे बड़ी दिक्कत यही है, कि जो नए-नए शब्द गढ़े जा रहे हैं, वे तत्सम-प्रकृति के हैं और क्लिष्ट भी हैं। उनमे सरलीकरण का खाँटी अभाव है। जैसे समय के साथ-साथ शब्द भी आसान होते चलते हैं, तद्भवी रूप लेते रहते हैं, उसी तरह तकनीकी शब्दों को भी थोड़ा आसान बनाना होगा। जिव्हा से जीभ, वृच्श्रिक से बिच्छू, अक्षि से आँख, स्तन से थन, कोकिल से कोयल और इंतकाल का रूपांतरण अंतकाल सचमुच सरल और व्यावहारिक लगता है। लेकिन संस्कृत या अंगरेजी़ के कुछ शब्दों का हिंदीकरण करने के चक्कर में उसे और ज़्यादा क्लिष्ट बना देना अन्याय ही है। जैसे अपमार्जिका को अपमार्जक जंतु, उरका को सरीसृप जीव कहना मूल शब्द से एक तरह का खिलवाड़ ही लगता है। संस्कृत के अतिचित्र को कैरिकेयर और प्रक्षेपित्र को प्रोजक्टर के विकल्प रूप में रखना तो सुखद लगता है, मगर मीसोन को मध्योण, पोजीट्रोन को धनोण, न्यूट्रोन को नपुंसोण और ऐक्स क्रोमोसोम का अक्षसोप या अक्षोम नामकरण शिक्षण को और दुरूह कर देगा। बेहतर यही होगा कि हम वैज्ञानिक एवं तकनीकी शिक्षण के लिए सरल एवं ग्राह्म हो सकने वाले शब्दों की ही सर्जना करें। जैसे गलूकोज को मधुरोस, प्रोटीन को प्रोथीन, चार्जिक को चार्जन करना ज़्यादा व्यावहवारिक एवं ग्राह्म प्रतीत होता है।

मूल्य शब्दों से परे जाकर अनुवाद करना और और मूल शब्द से मिलते-जुलते शब्दों की सर्जना में अंतर है। शब्दकोश की समृद्धि के लिए दुरूह प्रयोग ठीक हो सकते हैं, लेकिन शिक्षण की दृष्टि से देखें तो ये कतई उपयोगी सिद्ध नहीं हो सकेंगे । जैसे प्रक्षालित्र, उत्थापित्र, प्रोत्थापित्र, प्रदोलित्र, संरोधित्र, श्यानित्र जैसे शब्द लाख कोशिशों के बावजूद छात्र ग्राह्म नहीं कर पाएँगे। इससे बेहतर तो यही होगा कि हम अँगरेज़ी के शब्दों को ही जस का तस रख दें, या फिर रुपांतरण इतना आसान बनाएँ, कि अटपटा न लगे। फ्रिजर का अनुवाद श्यानित्र, एयरकूलर का शीतित्र अथवा वातानुशीतित्र तथा इनवाइटर को इग्रित्र कहना अटपटा प्रयोग लगता है। ऐसा करके हम छात्रों को शिक्षण ही नहीं, हिंदी से भी दूर ले जाएँगे। एयरकूल का वातानुकूल तो ठीक है, लेकिन यह भी स्वीकारना होगा, कि हर युग में और हर कहीं केवल सरलता ही स्वीकार्य होती है। वाल्मीकि द्वारा संस्कृत में रची गयी रामायण संस्कृत के विद्वान तो समझ पाए, लेकिन वह आम लोगों से दूर ही रही, लेकिन जैसे ही तुलसीदास जी ने रामचरित मानस की अवधी जैसी खड़ी बोली में, सर्जना की, तो वह देखते ही वैश्वीक हो गई।

विज्ञान एवं तकनीकी शिक्षण के लिए गढ़े जाने वाले शब्दों के साथ भाषाविद् इस बात का भी ध्यान रखें, कि उसे लोक-स्वीकृति मिले। नए तकनीकी शब्द अगर किताबी बन कर रह गए, तो उनकी उपादेयता क्या रहेगी ? वे हमारे जीवन के भी अनिवार्य हिस्से क्यों न बनें ? नित नए शब्दों के सर्जक दिन-रात एक कर रहे हैं। लैंस को चंद्रक, कार्डियल को हृदयल, पैथसिन के लिए जठरिन, एयर कन्वेटर के लिए परिवत्र या संवाहित्र, और इंक्केरी के लिए परिपृष्टा जैसे शब्दों की सर्जना वंदनीय है लेकिन यह ग्राह्रा नहीं हो सकते। अगर हम ऐसे शब्दों के सहारे शिक्षण करने की तैयारी कर रहे हैं, तो छात्र दूर होते जाएँगे। सरलीकरण का ध्यान रखते हुए शब्द-संधान हो। ऐसे शब्द तैयार हों, जो पानी की तरह बहते हों। नए सृजित शब्दों के अधिकांश उदाहरण मैंने अरविंदकुमार जी के समांतर कोश से ही लिए हैं। अरविंदकुमार जी ने अपनी धर्मपत्नी के साथ मिल कर निसंदेह युगांतकारी काम किया है। हिंदी साहित्य उनका ऋणी है, लेकिन व्यावहारिक दृष्टि से उनके अनेक शब्द शायद अप्रचलित ही रह जाएँगे । शिक्षण-प्रशिक्षण की दृष्टि से उपयोगी सिद्ध नहीं हो पाएँगे। जिस तरीके के शब्द सामने आ रहे हैं, उसे देख कर ही यह माना जाने लगा है कि हमारे यहाँ भी हिंदी में तकनीकी शिक्षण सर्वाधिक जटिल का है।

भूमंडलीकरण के इस दौर में एक भाषा में अन्य भाषाओं के शब्द भी सहज रूप से समरस होने लगे हैं। यह वैश्वीकरण की दिशा में रचनात्मक पहल है। आक्सफोर्ड शब्दकोश में पक्का, अचार, गंगा, पंडा, हिंदी, पंडित जैसे अनेक शब्द शामिल हो चुके हैं। तब हम अँगरेज़ी के बेहद प्रचिलत शब्दों का शिक्षण में इस्तेमाल क्यों नहीं कर सकते ? शब्दों की नई संरचनाएँ स्वागतेय हैं, मगर वे पर्यायवाची के रूप में ही रहें। जैसे ब्लैकहोल को कालत्र कहना या विटामिन के लिए जीवामिन शब्द बनाना ठीक है, लेकिन समीचीन यही होगा, कि हम ब्लैकहोल और विटामिन का ही व्यवहार करते रहे, क्योंकि ये शब्द अब बेहद प्रचलित हो गए हैं। एयरकूल एयरकूल ही ठीक है। इसे वातानुशीतित्र करने से गरमी बढ़ सकती है। मानसिक शीतलता दृष्टि से कठिन शब्दावलियों से परहेज भी ज़रूरी है। तभी तकनीकी शिक्षण सफल हो पाएगा।
अनेक उदाहरणों को देखने के बाद मैं यह मानता हूँ कि हिंदी में तकनीकी- वैज्ञानिक शिक्षण के लिए नए सिरे सोचने की ज़रूरत है। क्लिष्टता ही विद्वता का पर्याय नहीं है। सरलता ही सर्वकालिक होती है। इस दृष्टि से हिंदी में नई शैक्षणिक प्रविधि विकसित करने की ज़रूरत है। अंतरजाल (इंटरनेट) के माध्यम से हिंदी वैश्विक होती जा रही है। अब उसे शिक्षण-प्रशिक्षण की सार्थक भाषा बनाने के लिए नई परियोजनाएँ बनानी होंगी। बन भी रही हैं। शब्दावली आयोग तो 1961 से ही इसी काम में प्राणपण से सक्रिय है। आयोग ने अब तक लगभग पाँच लाख पारिभाषित शब्दों का जाल-सा बिछा दिया है। मानविकी, विज्ञान, प्रशासन आदि से जुड़े हजारों नए शब्द तैयार हुए। यह अभूतपूर्व काम है। भाषाविदों को भी अलग-अलग मोर्चों पर काम करना पड़ेगा। शर्त यही है, कि अनुसंधान एवं सर्जना के लिए सरल भाषा में ही वैकल्पिक शब्दों की संरचना हो। वह आम बोलचाल की भाषा भी न हो, लेकिन कम से कम ऐसी तो हो, कि विद्यार्थी उसे आसानी से समझ और उच्चारित कर सकें।

अपने समय के महान भाषा विज्ञानी डॉ. रघुवीर, डॉ. भोलानाथ तिवारी, हरदेव बाहरी, फादर कॉमिल बुल्के आदि ने हज़ारों शब्द सर्जित किए थे। डॉ. रघुवीर ने डेढ़ लाख पारिभाषिक शब्दों का भारी-भरकम कोश तैयार किया था। उन्होंने अँगरेज़ी के अनेक शब्दों के हिंदी अनुवाद किए, नए शब्द भी गढ़े, मगर तत्सम रूपों के कारण उन्हें स्वीकृति नहीं मिल सकी, लेकिन उन्होंने युगांतकारी काम किया था, वे शुद्धतावादी थे अब केवल संस्कृतनिष्ठ शब्दों से काम नहीं चलेगा। हमें भारतीय भाषाओं के सहारे शब्दों की रचना करनी होगी। डॉ. रघुवीर के काम को जी-तोड़ श्रम करने वाले अरविंदकुमार जी आगे बढ़ा रहे हैं। लेकिन अनेक शब्द व्यावहारिकता के निकष पर खरे नहीं उतर सके हैं। अभी और मेहनत करनी होगी और विज्ञान-तकनीकी शिक्षण के लिए दुरूह शब्दों के साथ-साथ मूल शब्द भी प्रचलन में रखना होगा। धीरे-धीरे ही सही, क्लिष्ट शब्द भी हमारे शैक्षणिक जीवन के हिस्से बन जाएँगे। ज़रूरत इस बात की है, कि नए शब्द पर्यायवाची रूप में निरंतर प्रचलन में रहें। इस बात का ध्यान भी रखना होगा, कि अपनी भाषा की श्रेष्ठता का दंभ न पाला जाए। अन्य भारतीय भाषाओं से भी शब्द लेने की कोशिशें हों। संस्कृत को देववाणी कह दिया जाता है। महाराष्ट्र के महान संत नामदेव इसीलिए तो पूछते हैं, कि संस्कृत अगर देववाणी है तो मराठी क्या चोरवाणी है ? दरअसल अस्मिता के नाम पर हमारे हिंदी विद्वान कुछ ज़्यादा ही भावुक और शुद्धतावादी हो गए। यही भावुकता शिक्षण-प्रशिक्षण में बाधा बन रही है।

हिंदी का बृहत्तर समाज अब वैश्विक होता जा रहा है, इसलिए वह शिक्षण के मामले में भी उदार बने। हिंग्लिश या हिंगरेज़ी या अँगरेज़ी का तेज़ी से विस्तार हो रहा है। यह इस बात का प्रतीक है, कि वर्जनाएँ टूट रही हैं। शुद्धता अब कोई अहम् मुद्दा नहीं। अब तो जो हमारी सेवा में तैनात है, उसकी भाषिक प्रविधि को ही निखारने की ज़रूरत है। अँगरेज़ी हमारी जीवन शैली का हिस्सा बनती जा रही है। ऐसे समय में अगर कुछ यौगिक शब्द बनें या अँगरेज़ी शब्दों की सरल अनुसर्जना हो, तो यह स्वागतेय है। जेल-खाना, रेल-गाड़ी, रेलवे, प्लेटफार्म, बस स्टैंड, शेयरधारक, आदि को हम हिंदी को हम हिंदी मानकर चलें। रेडियो, टीवी, भाषा के मामले में हम सर्वग्रह्म प्रवृत्ति के संत बन कर यौगिक एवं सरल शब्दों को प्रोत्साहित करें। ग.मा. मुक्तिबोध ने कहा था, कि राष्ट्रभाषा वही है जिसकी पहुँच ज़्यादा आदमियों तक रहे। किंतु हम तो हिंदी की प्रेषणीयता को ही ख़त्म करने जा रहे हैं। बात बिल्कुल सही है। दुरूह शब्दों को परोसने की कोशिश प्रकारांतर से हिंदी की प्रेषणीयता को ख़त्म कर देगी।

भाषिक संरचना की दिशा में निरंतर अनुसंधान हो रहे हैं इसलिए विज्ञान एवं तकनीकी शिक्षण की शब्दावलियों के बारे में आम राय यही है कि उनके लोकव्यापीकरण पर ध्यान दिया जाए। जैसे प्रजनन सरल लगता है, मगर उस प्रवर्णन कितना कठिन हो जाएगा। एल्फा के लिए अकाराणु, कन्वैक्टर के लिए पंखित्र जैसे शब्द उचित-से प्रतीत नहीं होते। मेरे ख्याल से हारमोन को हारमोन ही रहने दिया जाए। कन्वेक्टर अगर कन्वक्तर भी हो जाए तो चल सकता है। जैसे रिपोर्ट का रपट हो गया। कार्डियल को हृदयल अनुवाद हृदयग्राही है। ज्ञापन, परमाणु, अणु, रेडियोएक्टिवता, अधीक्षक, निगम, मुदा-स्फीति, प्रायोजित अनुवांशिकी, डाक्टर, इंजीनियर, जैसे अनेक शब्द हैं, जो धीरे-धीरे जीवन में घुल-मिल रहे हैं। मगर लाइटर के लिए प्रज्वलित्र कठिन है। उजालक जैसे विकल्प पर विचार किया जाए। कम्प्यूटर के माउस को माउस ही रहने दें। उसे चुहा न बनाएँ।

बहरहाल, हिंदी में तकनीकी और वैज्ञानिक शिक्षण शिक्षण की दिशा में जो भगीरथ प्रयास हो रहे हैं, वे विफल नहीं हो सकते। वह दिन दूर नहीं जब हमारी राष्ट्रभाषा हिंदी में संपूर्ण तकनीकी शिक्षण शुरू हो जाएगा। बस, हमें अँगरेज़ी के साथ-साथ भारतीय भाषाओं को भी खंगालना होगा। वहाँ भी हमें अँगरेज़ी के पर्यायवाची शब्द मिल सकते हैं। उर्दू या कहें कि हिंदुस्तानी भाषा के उनके शब्द लिए जा सकते हैं । दक्षिण की भाषाओं के भी शब्द तलाशे जा सकते हैं। प्रख्यात व्याकरणाचार्य किशोरीदास वाजपेयी कहते थे, कि हिंदी को तो अंतर-प्रांतीय व्यावहार का माध्यम स्वीकार करना है। अँगरेज़ी भाषा के लदे रहने से प्रांतीय भाषाएँ नहीं दबीं, तब हिंदी से क्या दबेंगी ? हिंदी के सहयोग से तो वे अत्यधिक विकसित होंगी। महावीरप्रसाद द्विवेदी जी कहते हैं, कि हिंदी भाषा जीवित भाषा है। जो लोग उसे किसी परिमित सीमा के बीतर ही आवद्व करना चाहते हैं, वे मानो उसका उपचय-उसकी कलेवर-वृद्धि-नहीं चाहते।...संसार में शायद ही ऐसी एक भी भाषा न होगी जिस पर, संपर्क के कारण, अन्य भाषाओं का प्रभाव न पड़ा हो और अन्य भाषाओं के शब्द उसमें सम्मिलित न हो गए हों । अंगरेज़ी भाषा संसार की समृद्ध भाषाओं में है। उसी को देखिए - उसमें लैटिन, ग्रीक, फ्रेंच, जर्मन आदि अनेक भाषाओं के शब्दों, भावों और मुहावरों का सम्मिश्रण है। उसमें संस्कृत भाषा तक के कुछ थोड़े ही परिवर्तित रूप में पाए जाते हैं। उदाहरणार्थ पाथ के रूप में हमारा पथ और ग्रास के रूप में घास प्रायः ज्यों का त्यों विद्यमान है। ये सब उदाहरण इस बात के प्रमाण हैं कि हमारे पुरखे भी प्रगातिशील सोच वाले थे, और वे भाषाई आदान-प्रदान का प्रबल पक्षधर थे।

हिंदी की शब्दावली को समृद्ध करने के लिए दूसरी भाषाओं की नदी में उतरना ही होगा। वैसे हमारी लोक भाषाएँ भी बेहद प्राणवान हैं। छत्तीसगढ़ी भाषा में ही एक-एक शब्द के अनेक पर्यायवाची शब्द मिल जाते हैं। भारतीय भाषाएँ समृद्ध है। इनमें अँगरेज़ी के समतुल्य अनेक शब्द मिल जाएँगे। ऐसा करके हम भाषाई सद्भावना की दिशा में भी एक सशक्त कदम बढ़ाएँगे और तकनीकी शिक्षण के स्वप्न को भी पूरा करेंगे।
संदर्भः
(1) अनुवाद पत्रिका के कोश विशेषांक (अंक-94-95, जनवरी-जून 1998)
(2) अनुवाद शतक विशेषांक जुलाई-दिसंबर- 1999
(3) समकालीन सृजन, अंक 18, 1998।
(4) भाषा, जनवरी-, 2006
-गिरीश पंकज
जी-31, नया पंचशील नगर,
रायपुर- 492001 (छ।ग)
(http://www.srijangatha.com/ से साभार)

1 टिप्पणी:

उन्मुक्त ने कहा…

मेरे विचार से हिन्दी नये शब्दों को गढ़ने के बजाय अंग्रेजी के शब्द ले लेने चाहिये।
हिन्दी चिट्ठाजगत में स्वागत है। आप अपने चिट्ठे को हिन्दी फीड एग्रेगेटरों के साथ पंजीकृत करवा लें।

हिंदीभाषी राज्यों में हिंदी में कार्य के लिए बैठकें...

      माननीय महोदय, आजादी के 72 वर्ष बाद भी हिंदीभाषी राज्यों में शासकीय कार्य हिंदी में किये जाने हेतु निर्देशित किये जाने वाली ऐसी बैठकें...