रविवार, 15 जून 2008

भाषा और संस्कृति : बालशौरि रेड्डी

''अब विदेशों में हमारे प्रवासी भारतीय अपनी भाषा संस्कृति, आदर्श एवं मूल्यों के प्रबल समर्थक होते हुए भी विदेशी भाषा को अपनी आजीविका तथा वैज्ञानिक उन्नति का स्त्रोत एवं साधन मानकर उसकी उपासना में लगे हुए हैं। ऐसी स्थिति में उन्हें अब आत्म विश्लेषण करना होगा कि हम मूलत: भारतीय हैं और भारत गणतंत्र की राजभाषा, संपर्क भाषा एवं राष्ट्रभाषा हिन्दी की उपेक्षा करना उचित नहीं हैं। यह जागृति व चेतना पुन: हिन्दी के उत्थान में सहायक सिध्द होगी।''

भाषा मानव मन की भावनाओं को अभिव्यक्त करने का साधन है। साथ ही एक-दूसरे को जोड़ने का माध्यम है। परस्पर सुख-दुखों आशा-आकांक्षाओं, आचार-विचार, वेष-भूषा, ज्ञान-विज्ञान, कला समस्त प्रकार की भाव संपक्ष आध्यात्मिक विरासत, संस्कृति तथा समस्त चिंतन भाषा में निबद्ध होता है।

वैदिक संस्कृत एवं ग्रीक भाषा एवं साहित्य विश्व के अत्यंत प्राचीनतम एवं समृद्ध भाषाएँ मानी जाती हैं। जिस भाषा में ज्ञान-विज्ञान, शिल्प एवं समस्त कलाओं की अभिव्यक्ति की गहनक्षमता होती है, वह भाषा संपन्न मानी जाती है। गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने अपने एक गीत में स्पष्ट बताया है- हम देश में आर्य भी आये। अनार्य भी आए, द्रविड़, चीन, शक-हूण, पठान मुगल सभी यहाँ आये, लेकिन कोई भी अलग नहीं रहा। सब इस महासागर (संस्कृति) में विलीन होकर एक हो गये।

निश्चय ही भारत एक महासागर है और भारतीय संस्कृति भी महासागर है। इसमें विश्व की तमाम संस्कृतियाँ आकर समाहित हो गई। आज जिसे लोग हिन्दू संस्कृति मानते है वह वस्तुत: भारतीय संस्कृति है जो सिंधुघाटी की सभ्यता, प्राग्वैतिहासिक एवं वैदिक संस्कृति का विकसित रूप है। इसने अनेक धर्मों, सभ्यताओं एवं संस्कृतियों को आत्मस सात कर लिया है। यही कारण है कि भारतीय संस्कृति सामासिक कहलाती है।

भारतीय संस्कृति की अन्य विशेषताएँ है। यह प्रगतिशील है, सांप्रदायिकता से परे तथा सहिष्णुता की भावना से ओतप्रोत है। समस्त भारत को धार्मिक, सामासिक सांस्कृतिक एवं ऐतिहासिक स्तर पर एक सूत्र में गूँथने की भावना एक भारतीय भावना-एकात्म भावना में बदरीनाथ केदारनाथ से लेकर कन्याकुमारी को, काशी से रामेश्वरम द्वारका से पुरी को जोड़ रखा है। जगद्गुरु श्री शंकराचार्य ने भारत के चारों दशाओं में चार पीठों की स्थापना की। तुलसी के अयोध्यावासी राम रामेश्वरम में शिव की उपासना करते हैं।

धार्मिक स्तर पर भी समन्वय की भावना भारतीय संस्कृति की महान उपलब्धि है। भारतीय वाडमय भी सांस्कृतिपरक है। डॉ. पी. राघवन ने अपनी ''भारतीय साहित्य रत्नमाला'' पुस्तक मे बताया है- ''भारत की प्रादेशिक भाषाओं में उत्कृष्ट साहित्य के प्रथम प्रयास संस्कृत के अनुवाद मात्र ही थे। ये सभी भाषाएँ शब्दराभि, दार्शनिक एवं धार्मिक पृष्ठभूमि, विषयवस्तु और साहित्यिक शैलियों के लिए संस्कृत पर ही पूरी तरह आश्वित थी।

यह कथन सर्वथा सत्य है हमारे देश की प्राकृत, पालि अपभ्रंश, ब्रज अवधी राजस्थानी भाषाएँ ही यहीं अपितु बांगला, मराठी, गुज़राती, तेलगु, कन्ड़, मलयालम आदि इतर भाषाएँ भी अपनी साहित्यिक संपदा के लिए किसी न किसी रूप में संस्कृत पर आधारित रही हैं अर्थात् समस्त भारतीय भाषाएँ संस्कृत वाडमय से अनुप्राणित हैं। महर्षि वाल्मिकी कृत आदि काव्य रामायण से लेकर व्यास प्रणीत महाभारत, भागवत इत्यादि काव्य-ग्रंथों के साथ भास, बाणभट्ट, हर्ष, कालिदास आदि के द्वारा विरचित साहित्य भारतीय भाषाओं में रूपांतरित है और उसके विभिन्न उपाख्यानों के आधार अपने पाडमय भण्डार को संपन्न कर चुकी है और यह क्रम भी जारी है।

अलावा इसके संस्कृत में भारती दर्शन, वेदांत, उपनिषद, तर्क, व्याकरण, न्याय रसायन, इतिवास, चिकित्सा, अर्थशास्त्र, नीतिशास्त्र, ज्योतिष, गणित, धनुर्वेद, मीमांसा, पुराण इत्यादि ज्ञान-विज्ञान संबंधी समस्त साहित्य उपलब्ध है जिसका रूपांतर समस्त भारतीय भाषाओं में हुआ है और ये सारी क्षेत्रीय भाषाएँ उपरोक्त वाड:मय के लिए केवल संस्कृत पर ही प्रारंभ में आधारित रहीं जिसमें हमारी संपूर्ण सांस्कृतिक परंपरा अक्षुण्ण है। अर्थात् संस्कृत भारतीय संस्कृति की स्त्रोत भाषा रही है और संस्कृत साहित्य उसका मूलाधार रहा है।

दरअसल किसी देश की सभ्यता एवं संस्कृति के विकास में उस देश या राष्ट्र की भाषा अहम् भूमिका रखती है। वैदिक युग से लेकर मुगल एवं अँग्ररेज़ों के आगमन तक भारत का इतिहास भाव्य रहा है। इस महान देश की सभ्यता की तूती सारे विश्व में बोल रही थी। भारत सभी क्षेत्रों में अ ग्रिम पंक्ति में था। रोम, ग्रीक आदि देशों के साथ भारत का व्यापार आदि वाणिज्य के क्षेत्रों में गहरा संपर्क था। बौद्ध एवं जैन युगों के समय में भारत की शिल्प स्थापत्य, चित्रकला एवं काष्ठकला चरमसीमा तक पहुँच चुकी थी। विदेशों से विद्यार्थी यहाँ के तक्षशिला, नालन्दा तथा विक्रम शिला के विश्व विद्यालयों में शिक्षा पाने हेतु आया करते थे। यहाँ की राज दरबारों में विदेशी राजदूत नियुक्त थे। मेगस्थनीस, टालमी, विदेशी यात्रियों ने हमारे देश का भ्रमण करके जो यात्रा वृतान्त लिखे हैं, उससे हमारे देश के प्राचीन वैभव एवं संस्कृति का भली भाँति पता चलता है। ईस्वी पूर्व पाँचवी शती से लेकर ईस्वीं दसवीं शताब्दी तक भारत के क्षेत्रों में स्पृहणीय विकास को प्राप्त था। इस प्रकार हमारे देश के चतुमुखी विकास में भाषा एवं साहित्य अगुणी भूमिका निभा रहे थे। दो हजार वर्ष पूर्व भारत में जहाँ न्यायी एवं पराक्रमी सम्राट विक्रमादित्य का वैभवपूर्ण शासन था, चन्द्रगुप्त जैसे प्रतापी और चाणक्य जैसे कुशल राजनीतिज्ञ विश्व के इतिहास में दुर्लभ हैं। महामात्य चाणक्य ने राज्य व्यवस्था चलाने के लिए अर्थशास्त्र, नाम से एक अद्भुत राजनीति शास्त्र का प्रणयन किया था, जिससे भारत की शानदार राज्य व्यवस्था का पता चलता है। परन्तु यवनों के आक्रमण के पश्चात् क्रमश: हमारे शास्त्र वाड:मय एवं कलाओं के विकास का मार्ग अवरूद्ध हुआ। अँग्ररेज़ों के आगमन के साथ हम अपने धर्म-कर्म को भी भूल बैठे और पाश्चात्य रंग में रंगने लगे। लार्ड मेकाले ने भारत में शासन तंत्र एवं शिक्षा का माध्यम अँगरेज़ी बनाने के सिफ़ारिश करके भारतवासियों को इंग्लैण्ड का बौद्धिक गुलाम बनाया। आज हम उसी भाषा के चश्मे से दुनिया को देखते हैं और अपनी अस्मिता को खो बैठे हैं। हमारे देश की सुद्र भाषाओं पर हमारा विश्वास नहीं रहा। पाश्चात्य सभ्यता के प्रवाह में बहते हुए भाषा के स्तर पर पराश्रित बन गये हैं। कुछ लोगों का विश्वास है कि विश्व का समस्त ज्ञान-विज्ञान एवं प्रतिभा कौशल केवल अँगरेज़ी भाषा में सुरक्षित है। यह उनकी गलत धारणा है। पुरातत्व फलां संगीत चित्रकारी इत्यादि विषयों में फे्रंच भाषा में जैसा समृद्ध साहित्य उपलब्ध है, वैसा साहित्य अँगरेज़ी में नहीं है फिर हम लोग अँगरेज़ी के बैशाखी पर चलते में गौरव तथा वर्ग का अनुभव करते हैं जब कि यथार्थ में रूसी, जापानी, जर्मन, फ्रेंच एवं फारसी भाषाएँ भी कम समृद्ध नहीं है। इन भाषओं में प्रचुर मात्रा में ज्ञान-विज्ञान का साहित्य रचा गया है और महत्वपूर्ण अनुसंधान हुआ है। उनकी संस्कृति परंपरा इन भाषाएं में अक्षुण्ण है और आज वैश्विक स्तर पर ये देश व्यापर वाणिज्य कला संस्कृति तथा विज्ञान के क्षेत्रों में अग्रिम पंक्ति में है। ये देश किसी भी हानि से अँगरेज़ी के मुंह ताज नहीं है। फिर भारत क्यों अँगरेज़ी का मुखापेक्षी है। यह हमारी मानसिक दासता का द्योतक है।

प्रजातंत्रीय राष्ट्र के चार अनिवार्य तत्वों में- संविधान राष्ट्रध्वज तथा राष्ट्रगीत के साथ राष्ट्रभाषा भी नितांत आवश्यक है। साथ ही किसी भी राष्ट्र पर किसी विदेशी भाषा को थोपना आधुनिकता के मूलभूत सिद्धांतों के विरूद्ध है। वास्तव में यदि किसी राष्ट्र पर जब कोई विदेशी भाषा हावी होने लगती है तभी उस राष्ट्र की संस्कृति का हास ने लगता है। किसी जाति के पूर्वजों द्वारा विचार एवं कर्म के क्षेत्र में अर्जित श्रेष्ठ संपत्ति उसकी संस्कृति होती है। वह संस्कृति उस जाति की भाषा के माध्यम से जीवित रहती है। सदियों से कोई भी जाति अपने जो मूल्य एवं आदर्श अपने अनुभव श्रमनिष्ठा चिन्तन मेधा समझ, विवेक द्वारा स्थापित करती है। उस जाति की संस्कृति मानी जाती है। भाषा संस्कृति की वाहिका होती है। अर्थात् संस्कृति की आधारशिला उस जाति की भाषा होती है। इसलिए संस्कृति भाषा पर टिकी होती है। इस प्रकार भाषा और संस्कृति का अविभाज्य संबन्ध है।

आज हमारे देश और विदेशों में भी हमारी संस्कृति खतरे में फँसी हुई है। विरासत को भूल बैठे हैं और अंधाधुंध पाश्चात्य भाषाओं साहित्य, कला, रहन-सहन आचार-विचार, संप्रदायों का अनुकरण करते जा रहे हैं, पाश्चात्य सभ्यता के आदर्श एवं मूल्य भौतिक सुख-सुविधाओं पर टिके हुए हैं और बौद्धिक विकास को प्रश्चय देते है। जबकि हमारे आदर्श एवं मूल्य निशुद्ध अध्यात्मपरक हैं। यह आदर्श तथा मूल्य भारतीय भाषाओं में सुरक्षित हैं। अब विदेशों में हमारे प्रवासी भारतीय अपनी भाषा संस्कृति, आदर्श एवं मूल्यों के प्रबल समर्थक होते हुए भी विदेशी भाषा को अपनी आजीविका तथा वैज्ञानिक उन्नति का स्त्रोत एवं साधन मानकर उसकी उपासना में लगे हुए हैं। ऐसी स्थिति में उन्हें अब आत्म विश्लेषण करना होगा कि हम मूलत: भारतीय हैं और भारत गणतंत्र की राजभाषा, संपर्क भाषा एवं राष्ट्रभाषा हिन्दी की उपेक्षा करना उचित नहीं हैं। यह जागृति व चेतना पुन: हिन्दी के उत्थान में सहायक सिध्द होगी।

आज वैश्विक स्तर पर हिन्दी को एक प्रकार से मान्यता प्राप्त हो चुकी हैं। दूतावासों के माध्यम से ही नहीं अनेक विश्वविद्यालयों में हिन्दी के पठन-पाठन तथा अनुसंधान की व्यवस्था हो चुकी है। हिन्दी भाषा भाषी ही नहीं, अन्य समस्त भारतवासी विदेशों में निवास करते हुए यह अनुभव करते हैं कि वे अपनी संस्कृति व अस्मिता खोते जा रहे हैं, यह अनुभव और आत्मविश्लेषण हिन्दी को अपनाने तथा जीवित बनाने रखते का शुभ संकेत है। यत्र-तत्र वे हिन्दी को द्वितीय भाषा के रूप में पाठशालाओं में पढ़ाने की व्यवस्था कराने के लिए आकुल-व्याकुल हैं।
मेरी समझ में विदेशों में हिन्दी को स्थापित करने तथा उसके उत्थान के उपायों हो सकते हैं :-
1. प्रत्येक परिवार में माता-पिता या अभिभावक अपनी मातृभाषा या हिन्दी में ही वार्तालाप करें और बच्चों के साथ घर में सदा-सर्वदा हिन्दी में ही बोले अर्थात हिन्दी का वातावरण बनाये रखें।
2. प्रवासी भारतीय विदेशों में जहाँ भी रहें, जिस स्थिति में भी रहें, भारतीय संस्कृति के आदर्शों तथा मूल्यों से पूर्ण साहित्य का पठन-पाठन करें व करायें।
3. विदेशों में बच्चों के लिए हिन्दी पाठशालाओं में हिन्दी पढ़ाने का प्रबंध करावें। चाहे द्वितीय या तृतीय भाषा के रूप में ही क्यों न दो पाठयक्रम में स्थान दिलावें।
4. भारतीय बहुल नगरों शहरों व कस्बों में हिन्दी ग्रंथालय तथा वाचनालय स्थापित करें, प्रमुख पत्रिकाएँ मंगवाकर सब को सुलभ करावें। हिन्दी में रचित उत्तम साहित्य तथा विज्ञान संबंधी पुस्तकें मंगवायें अथवा दूतावास के माध्यम से उपलब्ध करावें।
5. भारतीय पर्व व त्यौहार अवश्य निष्ठापूर्वक मनाकर उनके महत्व पर व्याख्यानों का आयोजन करें।
6. हिन्दी की विविध विधाओं पर प्रतियोगिताएँ चलाएँ तथा विजेताओं को पदक पुरस्कार प्रदान कर प्रोत्साहित करें।
7. समय-समय पर गोष्ठियों, परिसंवादों, समारोहों, सम्मेंलनों तथा सभाओं का आयोजन करके अपने ज्ञान की वृद्धि करें और हिन्दी भाषा के प्रतिममत्व आकर्षण तथा श्रद्धा-भाव पैदा करें।
8. विभिन्न भारतीय भाषाओं तथा साहित्यों के आदान प्रदान-अनुवाद इत्यादि का प्रबंध हो। ताकि विभिन्न भाषा भाषी भारतीयों के बीच सद्भाव, सौमनस्य एवं सौजन्य के अंकुर फूटे।
9. पिकनिक, सांस्कृतिक कार्य भी संगीत, नृत्य नाटक एवं चित्रकलाओं के प्रदर्शन भी हिन्दी के उत्थान में सहायक हो सकते हैं।
10. इन सब से बढ़ कर महत्वपूर्ण कार्य यह होना चाहिए कि दादी-नानी के माध्यम से ही नहीं, माता-पिता तथा भारतीय समाज के लोग भारतीय साहित्य, कला, वैभव, इतिहास आदि का बच्चों के बोध करावे तथा अपनी मातृभूमि प्रति श्रद्धा-भक्ति उनके हृद्यों में उदित हो सके।

तेलुगु के महा कवि आचार्य रायप्रोलु सुब्बाराव ने अपने एक राष्ट्रीय गीत में यह उद्बोधन किया है-
(''देश मेगिनाएवं कालिडिना, पोगडरा भी तल्ली भूमि भारतीनी।'' अर्थात् तुम किसी भी देश में जाओ, जहाँ भी कदम रखें, अपनी मातृसदृश भारत भूमि की प्रस्तुति करना न भूलो।)
अब रहा, भारत के भीतर हिन्दी के उत्थान का प्रश्न-हिन्दी तो संवैधानिक स्तर पर 26जनवरी 1956 से ही भारत की राजभाषा का स्थान व गौरव प्राप्त कर चुकी है। अँगरेज़ी सहभाषा के रूप में व्यवहत्त होनी चाहिए थी परंतु आज भी उसका वर्चस्व सर्वत्र स्थापित है। यह हमारी मानसिकता की गुलामी का प्रतीक है। गृह मंत्रालय द्वारा हिन्दी को क्रमश: शासन तंत्र में अर्थात प्रशासन में प्रवेश कराने के प्रयत्न दशकों से हो रहे हैं, जो संतोष जनक नहीं है वैसे 1965 में तत्कालीन प्रधान मंत्री स्वर्गीय श्री लालबहादुर शास्त्री की अध्यक्षता में संपन्न मुख्यमंत्रियों के सम्मेलन में सर्वसम्मति से सभी राज्यों में त्रिभाषा सूत्र अमल करने का निश्चय हुआ था- प्रथम भाषा- मातृभाषा या क्षेत्रीय भाषा, द्वितीय भाषा हिन्द या तृतीय भाषा के रूप में अँगरेज़ी पढ़ाई जाए। दक्षिण के आन्ध्रप्रदेश, कर्नाटक एवं केरल ने ईमानदारी के साथ इस सिद्धांतों पर अमल किया परंतु शेष राज्यों ने या तो आंशिक रूप में अनुपालक किया अथवा उपेक्षा की। इस क्रम से हिन्दी वास्तव में राजभाषा के पद पर सही मान में कभी स्थापित नहीं हो सकती। इसके दो ही उपाय है- एक तो यह है कि अँगरेज़ी के समान हिन्दी में उत्तीण स्नातकों को नौकवियों में प्राथमिकता दी जाए। यह प्रावधान शासन के स्तर पर विधयक द्वारा होना चाहिए। क्योंकि हिन्दी को आज भावना के स्तर पर नहीं, रोजी-रोटी के साथ जोड़ना होगा। तब झखमार कर तब लोग हिन्दी पढ़ेंगे-सारे देश का समर्थन हिन्दी को प्राप्त होगा और अँगरेज़ी अपने आप छूट जाएगी। दो -संसद में यह प्रस्ताव पारित करना चाहिए कि पाँच या छ: वर्ष की अवधि तक भारत में प्रशासन में अँगरेज़ी का प्रचलन होगा। तत्पश्चात केवल मात्र हिन्दी का प्रचलन होगा अन्यथा हमारी संकल्पना कभी आचरण में साध्य न होगी।

हमारे रासू के मनीषी विद्वान स्वर्गीय डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने सही कहा था कि भारतीय वाङमय एक है और यह विभिन्न भाषाओं में सृजित है। यह हमारी एकात्मता का द्योतक है साथ ही उन्होंने यह भी कहा था कि हमें भारतीय अध्यात्म को पूर्ण रूप में बनाये रखते हुए पश्चिम के वैज्ञानिक उन्मेष को भी अपनाना होगा। तभी हमारा भौतिक एवं अध्यात्मिक स्तर पर समग्र विकास संभव है। परंतु आज हम भारतीयों में कथनी-करनी में बहुत बड़ा अंतर आ गया है। परिणाम स्वरूप हम इस संक्रांति काल से गुज़र रहे हैं। इस ओर हिन्दी के महा कवि, कामायनी कार श्री जयशंकर प्रसाद ने संकित किया था-

ज्ञान दूर कुछ, क्रिया भिन्न है, इच्छा पूरी हो मन की; एक दूसरे से न मिल सके, यह विडम्बना है जीवन की। आइये, हम इस विडंबना पर विजय प्राप्त करें तथा महात्मा गाँधी के इस कथन को-
''एक राष्ट्रभाषा हो भारत की।
एक हृदय हो भारत जननी।
सार्थक बनाने का संकल्प करें और
उसे पूर्ण रूप में आचरण में लावें।''
-बालशौरि रेड्डी
पूर्व संपादक, चंदामामा
चैन्नई, तमिलनाडु
(कॉम/">http://www.srijangatha.कॉम/ से साभार)
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